Bhagwat Geeta Chapter 1 | भगवद गीता का अध्याय 1

Bhagwat Geeta Chapter 1 परिचय:

भगवद गीता का अध्याय 1 “अर्जुनविषाद योग” है, जिसमें अर्जुन अपनी निराशा, चिंता, भय, और डर के विषय में विवरण देते हैं।

भगवत गीता के बारे में लिखने का उत्शाह अद्भुत है। भगवत गीता हमारे जीवन में चल रहे रणभूमि से जितने का एक मानव ग्रन्थ है।

Bhagwat Geeta Chapter 1 in Hindi | भगवद गीता का अध्याय 1

Bhagwat Geeta Chapter 1 | भगवद गीता का अध्याय 1 में वर्णन:
इस अध्याय में बताया गया है कि अर्जुन से कोनसा शंख बजाया, भगवन कृष्ण से कोनसा संख बजाया यानि शंख के बारे में वर्णन है।

अर्जुन जब अपने परिवार को देखते हैं, तो विषाद में चले जाते हैं। अर्जुन भगवन से कहता है, भगवान कृष्ण से कहा, “केशव! मुझे क्षमा करें, मैं इस युद्ध को नहीं लड़ सकता।” इस प्रकार, पहले अध्याय में अर्जुन ने अपनी निराशाओं का वर्णन किया है।

Bhagwat Geeta Chapter 1 | भगवद गीता का अध्याय 1

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 1 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 1

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ ( श्लोक 1 )

धृतराष्ट्रः-उवाच – राजा धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्रे – धर्मभूमि (तीर्थस्थल) में; कुरु-क्षेत्रे – कुरुक्षेत्र नामक स्थान में; समवेता: – एकत्र; युयुत्सवः- युद्ध करने की इच्छा से; मामकाः- मेरे पक्ष (पुत्रों) ; पाण्डवाः- पाण्डु के पुत्रों ने; च – तथा; एव – निश्चय ही; किम् – क्या; अकुर्वत – किया; सञ्जय – हे संजय ।

धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 2 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 2

सञ्जय उवाच

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ ( श्लोक 2 )

सञ्जयः-उवाच – संजय ने कहा; दृष्ट्वा – देखकर; तु – लेकिनः पाण्डव-अनीकम् – पाण्डवो की सेना को; व्यूढम् – व्यूहरचना को; दुर्योधनः – राजा दुर्योधन ने; तदा – उस समय; आचार्यम् – शिक्षक, गुरु के; उपसङ्गम्य – पास जाकर; राजा – राजा; वचनम् – शब्द; अब्रवीत् – कहा।

संजय ने कहा – हे राजन् ! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 3 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 3

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
 ( श्लोक 3 )

पश्य – देखिये; एताम् – इस; पाण्डु-पुत्राणाम् – पाण्डु के पुत्रों की; आचार्य – हे आचार्य (गुरु); महतीम् – विशाल; चमूम् – सेना को; व्यूढाम् – व्यवस्थित; द्रुपद-पुत्रेण – द्रुपद के पुत्र द्वारा; तव – तुम्हारे; शिष्येण – शिष्य द्वारा; धी-मता – अत्यन्त बुद्धिमान ।

हे आचार्य ! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखें, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 4 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 4

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
 ( श्लोक 4 )

अत्र – यहाँ; शूराः – वीर; महा-इषु-आसा: – महान धनुर्धर; भीम-अर्जुन – भीम तथा अर्जुन; समा:- के समान; युधि – युद्ध में; युयुधान:- युयुधान; विराट:- विराट; च:- भी; द्रुपदः – द्रुपद;   भी; महा-रथः – महान योद्धा।

इस सेना में भीम तथा अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर धनुर्धर हैं यथा महारथी युयुधान, विराट तथा द्रुपद।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 5 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 5

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥
 ( श्लोक 5 )

धृष्टकेतुः – धृष्टकेतु; चेकितानः- चेकितान; काशिराजः – काशिराज; च – भी; वीर्यवान् – अत्यन्त शक्तिशाली; पुरुजित् – पुरुजित्; कुन्तिभोजः – कुन्तिभोज; च – तथा; शैब्य: – शैब्य; च – तथा; नर-पुङ्गवः – मानव समाज में वीर।

तात्पर्य :- इनके साथ ही धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, पुरुजित. कन्तिभोज तथा शैब्य जैसे महान शक्तिशाली योद्धा भी हैं।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 6 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 6

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
 ( श्लोक 6 )

युधामन्युः – युधामन्यु; च – तथा; विक्रान्त: – पराक्रमी; उत्तमौजा: – उत्तमौजा; च – तथा; वीर्य-वान् – अत्यन्त शक्तिशाली; सौभद्रः – सुभद्रा का पुत्र; द्रौपदेयाः – द्रोपदी के पुत्र; च – तथा: सर्वे – सभी; एव – निश्चय ही; महा-रथा: – महारथी ।

तात्पर्य :- पराक्रमी युधामन्यु, अत्यन्त शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र – ये सभी महारथी हैं।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 7 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 7

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
 ( श्लोक 7 )

अस्माकम – हमारे; तु – लेकिन; विशिष्टा: – विशेष शक्तिशाली; ये – जो; तान – उनको; निबोध – जरा जान लीजिये, जानकारी प्राप्त कर लें; द्विज-उत्तम – हे ब्राह्मणश्रेष्ठ; नायका:- सेनापति, कप्तान; मम – मेरी; सैन्यस्य – सेना के; संज्ञा-अर्थम् – सूचना के लिए; तान् – उन्हें; ब्रवीमि – बता रहा हूँ; ते – आपको।

तात्पर्य :- किन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आपकी सूचना के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 8 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 8

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
 ( श्लोक 8 )

भवान् – आप; भीष्मः – भीष्म पितामह; च – भी; कर्ण: – कर्ण; च – और; कृपः – कृपाचार्य; च – तथा; समितिञ्जयः – सदा संग्राम-विजयी; अश्वत्थामा – अश्वत्थामा; विकर्ण: – विकर्ण; च – तथा; सौमदत्ति: – सोमदत्त का पुत्र; तथा – भी; एव – निश्चय ही; च – भी ।

मेरी सेना में स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो युद्ध में सदैव विजयी रहे हैं।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 9 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 9

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥
 ( श्लोक 9 )

अन्ये – अन्य सब; च – भी; बहवः – अनेक; शूराः – वीर; मत्-अर्थे – मेरे लिए; त्यक्जाविता:- जीवन का उत्सर्ग करने वाले; नाना – अनेक; शस्त्र – आयुध; प्रहरणा :- से युक्त, सुसज्जित; सर्वे – सभी; युद्ध-विशारदाः – युद्धविद्या में निपुण।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 10 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 10

ऐसे अन्य अनेक वीर भी हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए उद्यत है। वे विविध प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और युद्धविद्या में निपुण हैं ।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
 ( श्लोक 10 )

अपर्याप्तम् – अपरिमेय; तत् – वह; अस्माकम – हमारी; बलम् – शक्ति; भीष्म – भीष्म पितामह द्वारा; अभिरक्षितम् – भलीभाँति संरक्षित; पर्याप्तम् – सीमित; तु – लेकिन; इदम – यह सब; एतेषाम् – पाण्डवों की; बलम् – शक्ति; भीम – भीम द्वारा; अभिरक्षितम – भलीभाँति सुरक्षित ।

हमारी शक्ति अपरिमेय है और हम सब पितामह द्वारा भलीभाँति संरक्षित हैं, जबकि पाण्डवों की शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति संरक्षित होकर भी सीमित है।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 11 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 11

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ( श्लोक 1
)

अयनेषु – मोर्चों में; च – भी; सर्वेषु – सर्वत्र; यथा-भागम – अपने-अपने स्थानों पर; अवस्थिता:- स्थित; भीष्यम् – भीष्म पितामह की; एव – निश्चय ही; अभिरक्षन्तु – सहायता करनी चाहिए; भवन्तः- आप; सर्वे – सब के सब; एव हि – निश्चय ही ।

अतएव सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोर्चों पर खडे रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी-पूरी सहायता दें।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 12 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक12

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योञ्चैः शङ्ख दध्मौ प्रतापवान् ॥ ( श्लोक 12 )

तस्य – उसका; सञ्जनयन् – बढ़ाते हुए; हर्षम् – हर्ष; कुरु-वृद्धः – कुरुवंश के वयोवृद्ध (भीष्म); पितामहः – पितामह, बाबा; सिंह-नादम् – सिंह की सी गर्जना; विनद्य – गरज कर; उच्चैः – उच्च स्वर से; शङ्खम् – शंख; दध्मौ – बजाया; 

तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 13 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 13

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽ भवत् ॥ ( श्लोक 13 )


ततः – तत्पश्चातः शङ्काः – शंख, च – भी; भेर्यः – बड़े-बड़े ढोल, नगाडे; च – तथा; पणव-आनक – ढोल तथा मृदंग; गो-मुखाः – शृंग; सहसा – अचानक; एव – निश्चय ही; अभ्यहन्यन्त – एक साथ बजाये गये; सः- वह; शब्दः- समवेत स्वरः तुमुल – कोलाहलपूर्ण; अभवत् – हो गया।

तात्पर्य :- तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग सहसा एक साथ बज उठे। वह समवेत स्वर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण था।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 14 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 14

तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ॥ ( श्लोक 14 )

ततः – तत्पश्चात् ; श्वेतै: – श्वेत; हयैः – घोड़ों से; युक्ते – युक्त; महति – विशाल; स्यन्दने – रथ में; स्थितौ – आसीन; माधवः – कृष्ण (लक्ष्मीपति) ने; पाण्डवः – अर्जुन (पाण्डुपुत्र) ने; च – तथा; एव  निश्चय ही; दिव्यौ – दिव्य; शङ्खौ – शंख; प्रदध्मतुः – बजाये।

दूसरी ओर से श्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 15 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 15

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदर ॥ ( श्लोक 15 )

पाञ्चजन्यम् – पाञ्चजन्य नामक; हृषीक-ईश: – हृषीकेश (कृष्ण जो भक्तों की इन्द्रियों को निर्देश करते हैं) ने; देवदत्तम् – देवदत्त नामक शंख; धनम्-जयः – धनञ्जय (अर्जुन, धन जीतने वाला) ने; पौण्ड्रम् – पौण्ड्र नामक शंख; दध्मौ – बजाया; महा-शङ्खम् – भीषण शंख; भीम-कर्मा – अतिमानवीय कर्म करने वाले; वृक-उदर: – (अतिभोजी) भीम ने ।

भगवान् कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया. अर्जन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र्र नामक भयंकर शंख बजाया ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 16 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 16

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥( श्लोक 16 )

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥( श्लोक 17 )

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥( श्लोक 18 )

अनन्त-विजयम – अनन्त विजय नाम का शंख; राजा – राजा; कुन्ती-पुत्र:- कुन्ती के पुत्र; युधिष्ठिरः – युधिष्ठिर; नकुलः – नकुल; सहदेवः – सहदेव ने; च – तथा; सुघोषमणिपुष्पकौ – सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख;

काश्य: – काशी (वाराणसी) के राजा ने: च – तथा; परम-इष-आसः – महान धनुर्धर; शिखण्डी – शिखण्डी ने; च – भी; महारथ: – हजारों से अकेले लड़ने वाले; धृष्टद्युम्नः-धृष्टद्युम्न (राजा द्रुपद के पुत्र) ने; विराट – विराट (राजा जिसने पाण्डवों को उनके अज्ञात-वास के समय शरण दी) ने; च – भी; सात्यकिः – सात्यकि (युयुधान, श्रीकृष्ण के साथी) ने; च – तथा; अपराजितः – कभी न जीता जाने वाला सदा विजयी;

द्रुपदः – द्रुपद, पंचाल के राजा ने; द्रौपदेया: – द्रौपदी के पुत्रों ने; च – भी; सर्वशः – सभी; पृथिवी-पते – हे राजा; सौभद्रः – सुभद्रापुत्र अभिमन्यु ने; च – भी; महा-बाहुः – विशाल भुजाओं वाला; शङ्खान् – शंख; दध्मुः – बजाए; पृथक्पृथक् – अलग-अलग ।

हे राजन्! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये। महान धनुर्धर काशीराज, परम योद्धा शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आदि सबों ने अपने-अपने शंख बजाये।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 19 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 19

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ॥( श्लोक 19 )

सः – उस; घोषः – शब्द ने; धार्तराष्ट्राणाम् – धतराष्ट्र के पुत्रों के; हृदयानि – हृदयों को; व्यदारयत् – विदीर्ण कर दिया; नभ: – आकाश; च – भी; पृथिवीम् – पृथ्वीतल को; च – भी; एव – निश्चय ही; तुमुल: – कोलाहलपूर्ण; अभ्यनुनादयन् – प्रतिध्वनित करता, शब्दायमान करता ।

इन विभिन्न शंखों की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी का शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को विदीर्ण करने लगी ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 20 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 20

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥( श्लोक 20 )

अथ – तत्पश्चात्; व्यवस्थितान् – स्थित; दृष्टा – देखकर; धार्तराष्टान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कपि-ध्वजः – जिसकी पताका पर हनुमान अंकित हैं; प्रवृत्ते – कटिबद्ध; शस्त्र-सम्पाते – बाण चलाने के लिए; धनु: – धनुष; उद्यम्य – ग्रहण करके, उठाकर; पाण्डवः – पाण्डुपुत्र (अर्जुन) ने; हृषीकेशम् – भगवान् कृष्ण से; तदा – उस समय; वाक्यम् – वचन; इदम् –ये ; आह – कहे; मही-पते – हे राजा।

उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठा कर तीर चलाने के लिए उद्यत हुआ। हे राजन्! धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से ये वचन कहे ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 21,22 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 21,22

अर्जुन उवाच


सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।
यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान् ॥ ( श्लोक 21
 )
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिरणसमुद्यमे ॥ ( श्लोक 22 )

अर्जनः उवाच – अर्जन ने कहा: सेनयोः- सेनाओं के; उभयो:- दोनों; मध्ये – बीच में; रथम – रथ को; स्थापय – कृपया खड़ा करें; मे – मेरे; अच्युत – हे अच्युत; यावत् – जब तक; एतान् – इन सब; निरीक्षे – देख सकूँ: अहम् – मैं; योद्ध-कामान् – युद्ध की इच्छा रखने वालों को; अवस्थितान् – युद्धभूमि में एकत्र;

कैः- किन-किन से; मया – मेरे द्वारा; सह – एक साथ; योद्धव्यम् – युद्ध किया जाना है; अस्मिन् – इस; रण – संघर्ष, झगडा के; समुद्यमे – उद्यम या प्रयास में ।

अर्जुन ने कहा-हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे मैं यहाँ उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों की इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 23 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥
 ( श्लोक 23 )

योत्स्यमानान – युद्ध करने वालों को; अवेक्षे – देखें; अहम – मैं; ये – जो; एते – वे; अत्र – यहाँ; समागताः- एकत्र; धार्तराष्ट्रस्य – धृतराष्ट्र के पुत्र की; दुर्बुद्धेः – दुर्बुद्धि; युद्धे – युद्ध में; प्रिय – मंगल, भला; चिकीर्षवः – चाहने वाले ।

उन लोगों को देखने दीजिये, जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योधन) को प्रसन्न करने की इच्छा से लड़ने के लिए आये हुए हैं ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 24 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 24

सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥
 ( श्लोक 24 )

सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त: – कहे गये; हृषीकेश:- भगवान् कृष्ण ने ; गुडाकेशेन – अर्जुन द्वारा; भारत – हे भरत के वंशज; सेनयो:- सेनाओं के; उभयोः- दोनों; मध्ये – मध्य में; स्थापयित्वा – खड़ा करके; रथ-उत्तमम् – उस उत्तम रथ को ।

संजय ने कहा-हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्बोधित किये जाने पर भगवान् कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 25 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 25

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥
 ( श्लोक 25 )

भीष्म – भीष्म पितामह; द्रोण – गुरु द्रोण; प्रमुखत: – के समक्ष; सर्वेषाम् – सबों के; च – भी; मही-क्षिताम् – संसार भर के राजा; उवाच – कहा; पार्थ – हे पृथा के पुत्र; पश्य – देखो: एतान् – इन सबों को; समवेतान् – एकत्रित; कुरून् – कुरुवंश के सदस्यों को; इति – इस प्रकार ।

भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवान् ने कहा कि हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सारे कुरुओं को देखो ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 26 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 26

तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्यौत्रान्सखींस्तथा ।
श्वथुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥
 ( श्लोक 26 )

तत्र – वहाँ; अपश्यत् – देखा; स्थितान् – खड़े; पार्थः- पार्थ ने; पितृन – पितरों (चाचाताउओ) को; अथ – भी; पितामहान् – पितामहों को: आचार्यान – शिक्षकों को; मातुलान – मामाओं को; भ्रातृन – भाइयों को; पुत्रान् – पुत्रों को; पौत्रान् – पौत्रों को; सखीन् – मित्रा को; तथा – और; श्वभुरान् – श्वसुरों को; सुहृदः – शुभचिन्तकों को; च – भी; एव – निश्चय ही; सेनयोः – सेनाओं के; उभयो: – दोनों पक्षों की; अपि – सहित ।

अर्जुन ने वहाँ पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताउओ, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिन्तकों को भी देखा ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 27 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 27

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ॥
 ( श्लोक 27 )

तान – उन सब को; समीक्ष्य – देखकर; सः – वह; कौन्तेयः – कुन्तीपुत्र; सर्वान – सभी प्रकार के; बन्धून् – सम्बन्धियों को; अवस्थितान – स्थित; कृपया – दयावश; परया – अत्यधिक; आविष्टः- अभिभूत; विषीदन् – शोक करता हुआ; इदम् – इस प्रकार; अब्रवीत् – बोला ।

तात्पर्य :- जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रों तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 28 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 28

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥
 ( श्लोक 28 )

अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; दृष्ट्वा – देख कर; इमम् – इन सारे; स्व-जनम् – सम्बन्धियों को; कृष्ण – हे कृष्ण; युयुत्सुम् – युद्ध की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम् – उपस्थित; सीदन्ति – काँप रहे हैं; मम – मेरे; गात्राणि – शरीर के अंग; मुखम् – मुँह; च – भी; परिशुष्यति – सूख रहा है ।

अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थित देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे हैं और मेरा मुँह सूखा जा रहा है ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 29 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 29

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥
 ( श्लोक 29 )

वेपथुः- शरीर का कम्पन; च – भी; शरीरे – शरीर में; मे – मेरे; रोम-हर्षः- रोमांच; च – भी; जायते – उत्पन्न हो रहा है; गाण्डीवम् – अर्जुन का धनुष, गाण्डीव; स्रंसते – छूट या सरक रहा है; हस्तात् – हाथ से; त्वक् – त्वचा; च – भी; एव – निश्चय ही; परिदह्यते – जल रही है ।

मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है ।

श्लोक 30

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ ( श्लोक 30 )

न – नहीं: च – भी; शक्नोमि – समर्थ हूँ; अवस्थात्म – खड़े होने में; भ्रमति – भूलता हुआ; इव – सदृश; च – तथा; मे – मेरा; मन: – मन; निमित्तानि – कारण; च – भी; पश्यामि – देखता हूँ; विपरीतानि – बिल्कुल उलटा; केशव – हे केशी असुर के मारने वाले (कृष्ण) ।

मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ। मैं अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 31 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 31

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।
न काङ्ग्रे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥( श्लोक 31
 )

न – न तो; च – भी; श्रेय:- कल्याण; अनुपश्यामि – पहले से देख रहा हूँ; हत्वा – मार कर; स्व-जनम् – अपने सम्बन्धियों को; आहवे – युद्ध में; न – न तो; काङ्के – आकांक्षा करता हूँ; विजयम  विजय; कृष्ण – हे कृष्ण; न – न तो; च – भी; राज्यम् – राज्य; सुखानि – उसका सुख; च – भी ।

हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 32,33,34,35 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 32,33,34,35

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ( श्लोक 32 )

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥
 ( श्लोक 33 )

मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन ॥
 ( श्लोक 34 )

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याजनार्दन ॥
 ( श्लोक 35 )

किम् – क्या लाभ; न: – हमको; राज्येन – राज्य से; गोविन्द – हे कृष्ण; किम् – क्या; भोगे – भोग से; जीवितेन – जीवित रहने से; वा – अथवा; येषाम – जिनके; अर्थे – लिए; काक्षितम् – इच्छित है; न: – हमारे द्वारा; राज्यम – राज्य; भोगा:- भौतिक भाग; सुखानि – समस्त सुख; च – भी

ते – वे; इमे – ये; अवस्थिता: – स्थित; युद्धे – युद्धभूमि में; प्राणान – जीवन को; त्यक्त्वा – त्याग कर; धनानि – धन को; च – भी; आचार्याः – गुरुजन; पितर: – पितृगण; पुत्राः – पुत्रगण; तथा – और; एव – निश्चय ही; च – भा; पितामहाः – पितामह

मातुला: – मामा लोग; श्वश्राः- श्वसर; पौत्राः – पौत्र; श्यालाः- साले; सम्बन्धिनः- सम्बन्धी; तथा – तथा; एतान – ये सब; न – कभी नहीं; हन्तुम् – मरना ; इच्छामि – चाहता हू; ध्रत – मारे जाने पर; अपि – भी; मधुसूदन – हे मधु असुर को मारने वाले (कृष्ण);

अपि – तो भी; त्रै लोक्य – तीनों लोकों के; राज्यस्य – राज्य के; हे तो: – विनिमय में; किम् नु – क्या कहा जाय; मही-कृते – पृथ्वी के लिए; निहत्य – मारकर; धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को; न:- हमारी; का – क्या; प्रीतिः – प्रसन्नता; स्थात् – होगी; जनार्दन – हे जीवों के पालक ।

हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं। हे मधुसूदन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना-अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खडे हैं I

तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें? हे जीवों के पालक! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी ?

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 36 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 36

पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः I
तस्मानार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्सबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥( श्लोक 36 )

पापम् – पाप; एव – निश्चय ही; आश्रयेत् – लगेगा; अस्मान् – हमको; हत्वा – मारकर; एतान् – इन सब; आततायिन: – आततायियों को; तस्मात् – अत: न – कभी नहीं; अर्हाः – योग्य; वयम् – हम; हन्तुम् – मारने के लिए; धार्तराष्ट्रान् – धृतराष्ट्र के पुत्रों को; सबान्धवान् – उनके मित्रों सहित; स्व-जनम् – कुटुम्बियों को; हि – निश्चय ही; कथम् – कैसे; हत्वा – मारकर; सुखिनः – सुखी; स्याम – हम होंगे; माधव – हे लक्ष्मीपति कृष्ण ।

यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अत: यह उचित नहीं होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण! इससे हमें क्या लाभ होगा ? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं ?

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 37,38 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 37,38

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ( श्लोक 37 )

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मानिवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृत दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ( श्लोक 38 )

यदि – यदि; अपि – भी; एते – ये; न – नहीं; पश्यन्ति – देखते हैं; लोभ – लोभ से; उपहत – अभिभूत; चेतसः – चित्त वाले; कुल-क्षय – कुल-नाश; कृतम् – किया हुआ; दोषम् – दोष को; मित्र-द्रोहे – मित्रों से विरोध करने में; च – भी; पातकम् – पाप को

कथम् – क्यों; न – नहीं; ज्ञेयम् – जानना चाहिए; अस्माभिः – हमारे द्वारा; पापात् – पापों से; अस्मात् – इन; निवर्तितुम – बन्द करने के लिए; कुल-क्षय – वंश का नाश; कृतम् – हो जाने पर; दोषम् – अपराध; प्रपश्यद्भिः – देखने वालों के द्वारा; जनार्दन – हे कृष्ण I

हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते, किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों ?

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 39 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 39

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥
 ( श्लोक 39 )

कुल-क्षये – कुल का नाश होने पर; प्रणश्यन्ति – विनष्ट हो जाती हैं; कुल-धर्माः – पारिवारिक परम्पराएँ; सनातनाः – शाश्वत: धर्मे – धर्म; नष्टे – नष्ट होने पर; कुलम् – कुल को; कृत्स्त्रम् – सम्पूर्ण; अधर्म: – अधर्म; अभिभवति – बदल देता है; उत – कहा जाता है ।

कुल का नाश होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 40 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 40

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥
 ( श्लोक 40 )

अधर्म – अधर्म; अभिभवात् – प्रमुख होने से; कृष्ण – हे कृष्ण; प्रदुष्यन्ति – दूषित हो जाती हैं; कुल-स्त्रियः – कुल की स्त्रियाँ; स्त्रीषु – स्त्रीत्व के; दुष्टासु – दूषित होने से; वार्ष्णेय – हे वृष्णिवंशी; जायते – उत्पन्न होती है; वर्ण-सङ्करः – अवांछित सन्तान ।

हे कृष्ण ! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी ! अवांछित सन्तानें उत्पन्न होती हैं ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 41 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 41

सङ्करो नरकायैव कुलघानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ( श्लोक 41 )

सङ्करः – ऐसे अवांछित बच्चे; नरकाय – नारकीय जीवन के लिए; एव – निश्चय ही; कुलनानाम् – कुल का वध करने वालों के; कुलस्य – कुल के; च – भी; पतन्ति – गिर जाते हैं; पितर: – पितृगण; हि – निश्चय ही; एषाम् – इनके; लुप्त – समाप्त; पिण्ड – पिण्ड अर्पण की; उदक – तथा जल की; क्रिया: – क्रिया, कृत्य ।

अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे ( पितर लोग ) गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 42 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 42

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥
 ( श्लोक 42 )

दोषैः – ऐसे दोषों से; एतैः – इन सब; कुल-नानाम् – परिवार नष्ट करने वालों का; वर्णसङ्कर – अवांछित संतानों के; कारकैः – कारणों से; उत्साद्यन्ते – नष्ट हो जाते हैं; जातिधर्माः – सामुदायिक योजनाएँ; कुल-धर्माः – पारिवारिक परम्पराएँ: च – भी; शाश्वता: – सनातन ।

जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित सन्तानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य विनष्ट हो जाते हैं ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 43 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 43

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ( श्लोक 43 )

उत्सन्न – विनष्ट; कुल-धर्माणाम् – पारिवारिक परम्परा वाले; मनुष्याणाम् – मनुष्यों का; जनार्दन – हे कृष्ण; नरके – नरक में; नियतम् – सदैव; वासः – निवास; भवति – होता है; इति – इस प्रकार; अनुशुश्रुम – गुरु-परम्परा से मैंने सुना है ।

हे प्रजापालक कृष्ण ! मैंने गुरु-परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं ।

श्लोक 44

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ( श्लोक 44 )

अहो – ओह; बत – कितना आश्चर्य है यह; महत् – महान; पापम् – पाप कर्म; कर्तुम् – करने के लिए; व्यवसिता: – निश्चय किया है; वयम् – हमने; यत् – क्योंकि; राज्य-सुखलोभेन – राज्य-सुख के लालच में आकर; हन्तुम् – मारने के लिए; स्व-जनम् – अपने सम्बन्धियों को; उद्यता: – तत्पर ।

ओह ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 45 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 45

यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥ ( श्लोक 45 )

यदि – यदि: माम – मुझको; अप्रतीकारम् – प्रतिरोध न करने के कारण; अशस्त्रम – बिना हथियार के; शस्त्र-पाणयः – शस्त्रधारी; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे – युद्धभूमि में; हन्युः – मारें; तत् – वह; मे – मेरे लिए; क्षेम-तरम् – श्रेयस्कर; भवेत् – होगा ।

यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूमि में प्रतिरोध न करने वाले को मारें, तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 Slog 46 | भगवद गीता का अध्याय 1 श्लोक 46

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविनमानसः ॥ ( श्लोक 46 )

सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – कहकर; अर्जुन: – अर्जुन; संख्ये – युद्धभूमि में; रथ – रथ के; उपस्थे – आसन पर; उपाविशत् – पुन: बैठ गया; विसृज्य – एक ओर रखकर; स-शरम् – बाणों सहित; चापम् – धनुष को; शोक – शोक से; संविग्न – संतप्त, उद्विग्न; मानस: – मन के भीतर ।

संजय ने कहा- युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया ।

Bhagwat Geeta Chapter 1 | भगवद गीता के अध्याय 1 से क्या सिखने मिलता है:

पहले भगवद गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन के विषाद को ध्यान से सुना और पूरे अध्याय में अर्जुन की बातों को सुना, बीच में और पहले अध्याय में कुछ नहीं कहा। इससे हमें सिख मिलती है कि जब भी कोई व्यक्ति अपना पक्ष रखता है, तो हमें उसकी बातों को ध्यान से सुनना चाहिए और समझने का प्रयास करना चाहिए।

Bhagwat Geeta Chapter 1 | भगवद गीता का अध्याय 1 में अर्जुन की परेशानी की कथा सुनकर और दूसरे अध्याय के संदर्भ से, हमें सिखने को मिलता है कि जीवन की मुश्किलों से कैसे निपटना चाहिए।

विषाद ज्ञान की पहली सीढ़ी होती है। जब जीवन में अंधकार छाया होता है, तो हमें ज्ञान की आवश्यकता होती है।

जब अर्जुन विषाद के अंधकार में चले जाते हैं, तब ज्ञान की जिज्ञाषा भगवान के समक्ष रखते है

हमारे जीवन में हम भी विषाद में चले जाते है और बहार कैसे आना यही भगवत गीता का सार है इसलिए कहा गया है की भगवत गीता यह जीवन जीने की कला है

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